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यु॒वं भु॒ज्युं भु॒रमा॑णं॒ विभि॑र्ग॒तं स्वयु॑क्तिभिर्नि॒वह॑न्ता पि॒तृभ्य॒ आ। या॒सि॒ष्टं व॒र्तिर्वृ॑षणा विजे॒न्यं१॒॑ दिवो॑दासाय॒ महि॑ चेति वा॒मव॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yuvam bhujyum bhuramāṇaṁ vibhir gataṁ svayuktibhir nivahantā pitṛbhya ā | yāsiṣṭaṁ vartir vṛṣaṇā vijenyaṁ divodāsāya mahi ceti vām avaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यु॒वम्। भु॒ज्युम्। भु॒रमा॑णम्। विऽभिः॑। ग॒तम्। स्वयु॑क्तिऽभिः। नि॒ऽवह॑न्ता। पि॒तृऽभ्यः॑। आ। या॒सि॒ष्टम्। व॒र्तिः। वृ॒ष॒णा॒। वि॒ऽजे॒न्य॑म्। दिवः॑ऽदासाय। महि॑। चे॒ति॒। वा॒म्। अवः॑ ॥ १.११९.४

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:119» मन्त्र:4 | अष्टक:1» अध्याय:8» वर्ग:20» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:17» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (वृषणा) सुख वर्षाने और सब गुणों में रमनेहारे सभासेनाधीशो ! (युवम्) तुम दोनों (वाम्) अपनी (भुरमाणम्) पुष्टि करनेवाले (भुज्युम्) भोजन करने के योग्य पदार्थ को (विभिः) पक्षियों ने (गतम्) पाये हुए के समान (स्वयुक्तिभिः) अपनी रीतियों से (पितृभ्यः) राज्य की पालना करनेहारे वीरों के लिये (निवहन्ता) निरन्तर पहुँचाते हुए (महि) अतीव (अवः) रक्षा करनेवाले पदार्थ और (वर्त्तिः) जो सेनासमूह (चेति) जाना जाय, उसको भी लेकर (दिवोदासाय) विद्या का प्रकाश देनेवाले सेनाध्यक्ष के लिये (विजेन्यम्) जीतने योग्य शत्रुसेनासमूह को (आ, यासिष्टम्) प्राप्त होओ ॥ ४ ॥
भावार्थभाषाः - सेनापतियों से जो सेनासमूह हृष्ट-पुष्ट अर्थात् चैनचान से भरा-पूरा खाने-पीने से पुष्ट अपने को चाहता हुआ जान पड़े, उसको अनेक प्रकार के भोग और अच्छी सिखावट से युक्त कर अर्थात् उक्त पदार्थ उनको देकर आगे होनेवाले लाभ के लिये प्रवृत्त करा, ऐसे सेनासमूह से युद्धकर शत्रु जन जीते जा सकते हैं ॥ ४ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे वृषणाऽश्विना युवं वां भुरमाणं भुज्युं विभिर्गतमिव स्वयुक्तिभिः पितृभ्यो निवहन्ता सन्तौ यद्वां मह्यवो वर्त्तिः सैन्यं चेति तच्च संगृह्य दिवोदासाय विजेन्यमायासिष्टम् ॥ ४ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (युवम्) युवाम् (भुज्युम्) भोगमर्हम् (भुरमाणम्) पुष्टिकारकम्। डुभृञ्धातोः शानचि व्यत्येन शो बहुलं छन्दसीत्युत्वं च। (विभिः) पक्षिभिरिव (गतम्) प्राप्तम् (स्वयुक्तिभिः) आत्मीयप्रकारैः (निवहन्ता) नितरां प्रापयन्तौ (पितृभ्यः) राजपालकेभ्यो वीरेभ्यः (आ) (यासिष्टम्) यातम् (वर्त्तिः) वर्त्तमानं सैन्यम् (वृषणा) सुखवर्षकौ (विजेन्यम्) विजेतुं योग्यम् (दिवोदासाय) विद्याप्रकाशदात्रे सेनाध्यक्षाय (महि) महत् (चेति) संज्ञायते। अत्राडभावः। (वाम्) युवयोः (अवः) रक्षकम् ॥ ४ ॥
भावार्थभाषाः - सेनापतिभिर्यत्सैन्यं हृष्टं पुष्टं स्वभक्तं विज्ञायेत तद्विविधैर्भोगैः सुशिक्षया च संयोज्यागामिलाभाय प्रवर्त्येदृशेन युध्वा शत्रवो विजेतुं शक्यन्ते ॥ ४ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - सेनापतींनी जी सेना धष्टपुष्ट अर्थात शांतपणे खानपान करून पुष्ट झालेली व स्वभक्त असेल तिला अनेक प्रकारचे भोग देऊन चांगली शिकवण द्यावी व वरील पदार्थ देऊन पुढील लाभासाठी प्रवृत्त करावे. अशा सेनेद्वारे युद्ध करून शत्रूंना जिंकता येते. ॥ ४ ॥